यन्त्र की परिभाषा

‘यन्त्र’ शब्द आज के युग में, जबकि भौतिक विज्ञान प्रगति की चरम सीमा पर है, मशीन के अर्थ में सर्वत्र प्रचलित है। मशीन, औजार, कई पुर्जों के संगठन से निर्मित कोई नयी वस्तु- यह सब यन्त्र कहलाते हैं। किन्तु शब्द-कोष में इसके अर्थ पर विस्तृत रूप में प्रकाश डाला गया है। शब्दकोश के अनुसार –

 

यन्त्र – अक्षरों (वर्णों अथवा अंकों-संख्याओं से संयुक्त कोष्ठक)

 

का आकार विशेष, जो वस्तुतः देव-स्थान (मन्दिर) का प्रतीक होता है और जिसमें देवता वास करते हैं, जन्तर, औजार, कल, मशीन, कल-पूर्जी का सम्मिलित रूप, ढाँचा, अल्प-अवधि में अधिक कार्य करने वाली वस्तु, ताला, वीणा, बाजा आदि।

 

अध्यात्म के क्षेत्र में यन्त्र का आशय वही अंक-वर्ण संयुक्त कोष्ठकाकृति है, जिसकी विधि-विशेष से संरचना करके, नियमानुसार देवता की भांति पूजा की जाती है। यन्त्रों की सिद्धि पाने क…
मानस प्रकाशन

 

नियमों मान्यताओं के परिवर्त्तन, सुविधा भोग की लालसा और दीर्घकाल तक कठोर संयमपूर्वक साधना करने की अनिच्छा के कारण यन्त्र और मन्त्र साधना के मार्ग में कुछ अवरोध आ गया था। बढ़ती हुई भौतिक लालसाएं व्यक्ति को अस्थिर, अधीर और सांसारिक बनाती जा रही थी। मोक्ष, अपवर्ग और ब्रह्म की प्राप्ति को उद्देश्य बनाकर अध्यात्म-साधना करने वालों की संख्या दिनोंदिन घटती जा रही थी। और इन सबसे भी सशक्त कारण यह था कि समाज में वर्गवाद, जाति-भेद, पाखण्ड, आडम्बर, शोषण और दमन बहुत बढ़ गया था। जो मन्त्र-यन्त्र कभी सर्वसुलभ थे, वे अब सामाजिक आर्थिक कारणों से दुर्लभ-दुस्साध्य हो चले थे। फलतः साधना के रूप में तन्त्र साधना का प्रचलन हुआ। यह अध्यात्म के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी। तन्त्र-साधना का उद्भव युगान्तरकारी सिद्ध हुआ।

 

मन्त्र : अर्थ और परिचय

 

मन्त्र शब्द बहुत व्यापक है। यह मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को (कम से कम भारतीय संस्कृति-परिवेश के सम्बन्ध में तो अवश्य ही) प्रभावित करता है। वह ज्ञान (साहित्य) का द्वार है और साथ ही, समस्त दैवी शक्तियों का वायव्य रूप भी। शब्दकोषों में मन्त्र की व्याख्या करते हुए उसके ये अर्थ बताये गये हैं-

 

मन्त्र – गुप्त-वार्ता, कान में कही जानेवाली बात, सलाह, मन्त्रणा, परामर्श, वेद का संहिता-भाग, कार्य-सिद्धि का वह सूत्र (गुर) शब्द या शब्द-समूह- जिसके द्वारा किसी देवता की सिद्धि या अलौकिक-शक्ति की प्राप्ति हो।

 

सहजता की दृष्टि से यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि मन्त्र ध्वनि प्रधान साधना है। इसमें ध्वनि विज्ञान के गूढ़ और सूक्ष्मतम सिद्धान्त निहित हैं। ‘नाद-ब्रह्म’ की उक्ति का अर्थ यही है कि ‘नाद’ अर्थात् ध्वनि ही ‘ब्रह्म’ है। इसे इस प्रकार भी कहते हैं कि ईश्वर (संसार की सर्वोत्तम सत्ता) का अव्यक्त रूप ध्वनि है। यही ध्वनि अथवा नाम ‘ब्रह्म’ है, अर्थात् ‘मन्त्र’ ही ‘ब्रह्म’ है
हमारे मुख से जो भी ध्वनि उच्चारित होती है, वह प्रत्येक स्थिति में कोई-न-कोई प्रभाव अवश्य उत्पन्न करती है। प्रागैतिहासिक-काल के मूर्धन्य मनीषियों ने उच्चारण-भेद के आधार पर समस्त ध्वनियों का वर्गीकरण करके उन्हें ‘स्वर’ और ‘व्यंजन’ दो वर्गों में विभक्त करके वर्णमाला के अक्षरों का निध रिण किया था। उन्हीं वर्णों (अक्षरों) में से कुछ को, उद्देश्य और प्रभाव भेद के आधार पर एक विशेष क्रम से प्रयुक्त करके मन्त्रों की रचना की गयी है। प्रकृति की विभिन्न (समस्त) शक्तियों को भारतीय अध्यात्म में देवी देवताओं के रूप में परिकल्पित किया गया है। उन शक्तियों की अनुकूलता पाने के लिए उनसे सम्बन्धि त मन्त्रों की रचना हुई। एक अक्षर (वर्ण) से लेकर दस, बीस, पचास और अधिक अक्षरों (वर्ण समूह) तक के मन्त्र रचे गये। साधक उनमें से अपनी आवश्यकता और श्रद्धानुसार किसी भी मन्त्र को जप करके लाभ उठा सकता है।
तंत्र का परिचय

 

मंत्र-यंत्र-तंत्र तीन ऐसी विद्याएं हैं, जिसके करने से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है। निष्ठा व विधिपूर्वक करने से फल अवश्य मिलता है। प्रत्येक अक्षर बीज मंत्र होता है। स्वर और व्यंजन रूप वर्ण की संरचना, प्रकृति, गुण और प्रभाव का सूक्ष्म अध्ययन करने से ज्ञात होता है। किसी वर्ण विशेष को किसी पूर्ण विशेष के साथ जोड़ देने से उनमें परिवर्तन व रूपान्तरण के गुण स्वयं आ जाते हैं। जिस समय किसी विशिष्ट ध्वनियां वर्ण का जप करते हैं तो वर्णों की ध्वनि हमारे सारे तंत्र को विशेष दिशा की स्थिति की ओर प्रवृत्त करती है।

 

भारतीय शास्त्रों में मंत्र विद्या का प्रमुख स्थान है। मंत्र विद्या के द्वारा साधक ऐसे क्षेत्र में पहुंच जाता है और ऐसी सिद्धियां प्राप्त कर लेता है, जिनको प्राप्त कर वह जीवन की सार्थकता का अनुभव कर सकता है। मंत्र विद्या के क्षेत्र मे…
अनुसंधान कर मंत्रों को शक्ति से परिचय कराया। मंत्रों की विधिवत् साधना से पराशक्ति की उत्पत्ति कर सर्व प्रकार की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों पर विजय की प्राप्ति की जा सकती है। ..

 

तंत्र विज्ञान में तीन शिव शक्ति और बिंदु तत्व होते हैं। शिव कर्ता, शक्ति करण और बिंदु उपादान होते हैं। इन तीनों तत्वों से दूरदर्शन, दूर श्रवण, दूर बोध, दूर आस्वादन, दूर स्पदर्शन दूरघ्घ्राणय व पूर्वाभाष आदि कलाओं की उत्पत्ति होती है। तंत्रों में मंत्र व यंत्र भी प्रयोग में आते हैं। तंत्र आकर्षण, मोहन, मारण उच्चाटन आदि का मार्ग भी बतलाता है।

 

साधना के समय में विनय भाव परम आवश्यक है। इस संदर्भ में एक कथा आती है।

 

एक वेश्यालय था, जो मंदिर के सामने ही था। वेश्यालय में नित्य गायन नृत्य होता था, बदले में धन व कीमती उपहार मिलते थे। इस प्रकार वेश्या की भौतिक इच्छाएं तो पूर्ण थीं, लेकिन उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित था। वेश्यालय में तो उसे फुर्सत ही नहीं थी, कि वह किसी प्रकार पूजन कर सके। उसके मन में एक ही इच्छा थी, कि वह किसी प्रकार मंदिर में स्थापित मूर्ति का दर्शन कर ले और शनैः शनैः उसकी यह इच्छा व्याकुलता में बदल गई। जब मंदिर में भगवान का स्मरण होता तो वह अत्यन्त व्याग्र हो उठती, उसके नेत्रों में आंसू बरसने लगते।

 

वेश्या के गायन के स्वर मंदिर तक भी पहुंचते थे। संयोगवश वेश्या और पुजारी, दोनों की मृत्यु एक ही समय हुई। यमराज उस पुजारी को नरक के द्वार पर छोड़कर वेश्या को स्वर्ग की ओर ले जाने लगे। पुजारी को इस पर बहुत क्रोध आया और उसने यमराज से पूछा-मैं जीवन भर मंदिर में पूजन करता रहा, फिर भी मुझे नरक में जगह दी जा रही है और यह वेश्या जीवन भर प.ग. में लिप्त रही, फिर भी इसे स्वर्ग में ले जाया जा रहा है। ऐसा क्यों?

 

यमराज ने उत्तर दिया-पूजा करते हुए भी तुम्हारा चित्त सदा
लोभ और पाप में ही लगा रहा, जबकि पापकर्मों में लिप्त रहते हुए भी इसका चित्त देवपूजा में ही लगा रहा। यही वजह है कि इसे स्वर्ग मिल रहा है और तुम्हें नरक। कर्म के साथ विचारों का भी जीवन में अत्यधिक महत्व है। जब तक चित्त भौतिक भागों में लिप्त रहेगा, तब तक साधना के उपरान्त भी सफलता की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

 

कलियुग में तंत्र शीघ्र सफलतादायक माने गये हैं। तंत्र से संबंधित कई साधनाएं और सिद्धियां हैं जो प्रत्येक गृहस्थ अपना सकता है। इसके लिए किसी प्रकार की विशेष पूजा या अर्चना की आवश्यकता नहीं है और न विशेष नियम आदि को ध्यान में रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार की साधनाएं पुरुष और स्त्री समान रूप से कर सकते हैं।

 

मनुष्य अपने आप में अधूरा है। वह अपने आपको पूर्ण कहता है, मगर पूर्ण है नहीं, क्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन रहता है। धन है तो प्रतिष्ठा नहीं, प्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं है, पुत्र है तो सौभाग्य नहीं है, सौभाग्य है तो रोगभय है। शरीर के भीतर कुछ ऐसी चीज नहीं है, जिससे कि इस शरीर पर गर्व किया जा सके। हम भोजन करते हैं, वह भी मल बन जाता है। हम चाहे हलवा खायें, चाहे घी खायें, चाहे रोटी खायें, उसको परिवर्तित मल-मूत्र के रूप में ही होना है।

 

सामान्य मानव शरीर के भीतर ऐसी कोई क्रिया नहीं होती, जो उसे दिव्य बना सके और ऐसा शरीर स्वयं में व्यर्थ है, जिसमें ज्ञान की चेतना समाहित नहीं हो सकती।

 

तंत्र साधना के जनक भगवान रुद्र माने गये हैं। भगवान शिव ने ही सर्वप्रथम आगम शास्त्र की रचना की। आगम शास्त्र में तंत्र साधनाओं का विस्तृत विवरण है और निगम शास्त्र वेद-पुराण माने गये हैं। कलियुग में शप्ति साधना की आवश्यकता है, इस कारण आज तंत्र साधना को समझना आवश्यक है। जहां वेद शास्त्रों वैदिक मार्ग द्वारा जीवन के लिए मोक्ष का मार्ग बताया गया

 

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